Vox Chronicles

क्या आज़ाद भारत में हर दिन ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ दोहराया जा रहा है?

Direct Action Day

क्या अब फिर ज़रूरत है गोपाल ‘पाठा’ और कामेश्वर यादव जैसे रक्षकों की?

आज हम उस भयानक सच्चाई का सामना कर रहे हैं, जिसे सुनकर हर जागरूक हिन्दू के रोंगटे खड़े हो जाएँगे। यह कथित ‘धर्मनिरपेक्ष भारत’ अब हिन्दुओं के लिए न्याय, सम्मान और धार्मिक स्वतंत्रता का कब्रिस्तान बनता जा रहा है। हर मोर्चे पर – न्यायपालिका, संसद, शिक्षा व्यवस्था और धार्मिक संस्थानों में – हिन्दुओं के साथ ऐसा भेदभाव हो रहा है जो सीधे-सीधे ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है।


1. न्यायपालिका में दोहरे मानदंड

(क) वक़्फ़ संशोधन अधिनियम, 2025

सुप्रीम कोर्ट ने वक़्फ़ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के खिलाफ मुस्लिम संगठनों की याचिकाएं त्वरित सुनवाई के लिए स्वीकार कर लीं। ये याचिकाएं इस अधिनियम को उनके धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन मानती हैं। लेकिन जब हिन्दू मंदिरों की संपत्तियों पर सरकारी कब्ज़े और छूट की मांग आती है, तो सुप्रीम कोर्ट ‘संवैधानिक संतुलन’ और ‘लोक कल्याण’ का ढोल पीटने लगता है।

(ख) कश्मीरी हिंदू नरसंहार बनाम 1984 सिख दंगे

1990 में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की पुनः जांच की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि मामला 30 साल पुराना है और साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन 1984 सिख दंगों की पुनः जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में SIT का गठन किया, जिससे दोषियों को सज़ा भी मिली। हिन्दुओं के खून की कीमत क्या सस्ती है?

(ग) राम जन्मभूमि बनाम वक्फ दस्तावेज़

राम जन्मभूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “हमें यह सिद्ध करना होगा कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था।” स्कंद पुराण, वाल्मीकि रामायण – सबको ‘मिथक’ मानकर खारिज किया गया। लेकिन जब वक्फ बोर्ड से सैकड़ों साल पुराने मजार या मस्जिद की ज़मीन के दस्तावेज मांगे गए, तो कोर्ट ने कहा: “भला वक्फ से यह कैसे अपेक्षित किया जा सकता है कि वह 200 साल पुराने दस्तावेज प्रस्तुत करे?” यह है न्याय की विडंबना। हिन्दू से पुराण भी अस्वीकार्य, लेकिन वक्फ से बिना कागज़ मंजूरी!


2. संसद और सरकार का दोहरा रवैया

(क) वक़्फ़ बोर्ड बनाम मंदिर प्रबंधन

वक़्फ़ बोर्ड को विशेष संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। इनकी संपत्तियों को चुनौती देना लगभग असंभव है। लेकिन हिन्दू मंदिरों की संपत्तियाँ सीधे-सीधे सरकार के अधीन कर दी जाती हैं। यहाँ तक कि मंदिर की ज़मीनें गैर-हिंदू संस्थाओं को पट्टे पर दी जाती हैं, और हिन्दू श्रद्धालु कुछ नहीं कर सकते।


3. शिक्षा में भेदभाव

(क) RTE अधिनियम और धार्मिक शिक्षा

RTE अधिनियम के तहत हिन्दू स्कूलों को 25% सीटें वंचित वर्गों के लिए आरक्षित करनी होती हैं। लेकिन मुस्लिम और ईसाई शैक्षणिक संस्थानों को इससे छूट मिली है। वे स्वतंत्र रूप से धार्मिक शिक्षा देते हैं, बाइबिल, कुरान पढ़ाते हैं, प्रार्थना कराते हैं। लेकिन अगर हिन्दू स्कूल गीता पढ़ाए, तो उसे “सेक्युलरिज्म के खिलाफ” घोषित कर दिया जाता है। यह कैसा समान अधिकार?


4. धार्मिक संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण

(क) मंदिरों की संपत्ति और सरकारी हस्तक्षेप

देश के हज़ारों मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं। तिरुपति से लेकर पद्मनाभ तक – सरकार न केवल मंदिरों की आय पर नियंत्रण करती है, बल्कि कई बार उसे गैर-धार्मिक योजनाओं में खर्च भी करती है। क्या किसी मस्जिद या चर्च की संपत्ति पर यह अधिकार है?

(ख) मंदिरों के स्वर्ण भंडार का उपयोग

सरकार लगातार योजनाएं बना रही है कि कैसे मंदिरों के स्वर्ण भंडार को सरकारी योजनाओं में उपयोग किया जाए। क्या इसी तरह चर्चों की संपत्ति या वक्फ बोर्ड की संपत्ति भी जब्त की जाती है?

(ग) हिंदू संस्थानों पर कर और अल्पसंख्यक संस्थानों को छूट

हिंदू मंदिरों पर कर लगाया जाता है। उदाहरण: कर्नाटक सरकार ने प्रस्ताव दिया कि 1 करोड़ से अधिक आय वाले मंदिरों से 10% और 10 लाख से 1 करोड़ के बीच वालों से 5% टैक्स लिया जाएगा। लेकिन मुस्लिम और ईसाई धार्मिक संस्थानों को टैक्स से छूट प्राप्त है। यही है हिन्दू टैक्सपेयर का इनाम?


5. ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा पर पुनर्विचार जरूरी

भारत में मुस्लिम समुदाय को अब भी ‘अल्पसंख्यक’ माना जाता है, जबकि वे दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं। यह परिभाषा अब सामाजिक और राजनीतिक शोषण का माध्यम बन गई है। ‘अल्पसंख्यक’ अब लाभ लेने की छवि बन चुका है, जबकि हिन्दू ‘बहुसंख्यक’ होकर भी उपेक्षित है।


6. निष्कर्ष: क्या हमें फिर गोपाल ‘पाठा’ चाहिए?

यह पूरी व्यवस्था अब हिन्दुओं के खिलाफ एक सुव्यवस्थित, संस्थागत भेदभाव का रूप ले चुकी है। जब कानून, न्यायपालिका और सरकार मिलकर एक धर्म विशेष को दबाने का प्रयास करें, तो यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं, Judicial Jihad कहलाता है।

आज हिन्दू समाज को संगठित होकर यह प्रश्न पूछना होगा:

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