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Judiciary की गरिमा पर धब्बा: जब अयोग्य जजों की हुई नियुक्ति – जस्टिस कैलाशनाथ वांचू और जस्टिस बहारुल इस्लाम का मामला

भारत के संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को लोकतंत्र का एक स्तंभ इसलिए माना क्योंकि उसमें निष्पक्षता, योग्यता और नैतिकता की अपेक्षा की गई थी। परंतु जब न्यायिक नियुक्तियाँ राजनीतिक स्वार्थ और व्यक्तिगत संबंधों की भेंट चढ़ जाएँ, तो न केवल संविधान की आत्मा छलनी होती है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ें भी कमजोर हो जाती हैं।

आज हम दो ऐसे नामों पर रोशनी डालेंगे, जिनकी सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति न केवल विवादास्पद रही, बल्कि न्यायपालिका की स्वायत्तता पर गहरे सवाल खड़े करती है – जस्टिस कैलाशनाथ वांचू और जस्टिस बहारुल इस्लाम।


1. जस्टिस कैलाशनाथ वांचू – राष्ट्रपति की “चापलूसी” से बना सीजेआई?

जस्टिस कैलाशनाथ वांचू की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति और फिर मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में पदोन्नति न्यायिक योग्यता से अधिक राजनीतिक समीकरणों का परिणाम थी। वह पहले जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे, और 1967 में बिना किसी विशेष न्यायिक योगदान के, सीधे सुप्रीम कोर्ट में जज बना दिए गए। 1969 में वे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी बने।

सबसे अधिक आलोचना इस बात की हुई कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें मुख्य न्यायाधीश इसीलिए बनाया क्योंकि उन्होंने सरकार की नीतियों का समर्थन किया और राष्ट्रपति वी. वी. गिरि के समर्थन में आवाज उठाई थी।

कानून विशेषज्ञों की राय:

वरिष्ठता के नियम को तोड़कर वांचू को सीजेआई बनाना न्यायिक स्वतंत्रता के मूल सिद्धांत के विरुद्ध था। — Granville Austin, The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation


2. जस्टिस बहारुल इस्लाम – “राजनीति छोड़ो, न्यायालय में बैठो” की मिसाल

बहारुल इस्लाम का मामला और भी चौंकाने वाला था। वे कांग्रेस के राज्यसभा सांसद थे। अचानक 1972 में राजनीति से इस्तीफा दिया और उन्हें गुवाहाटी हाई कोर्ट में जज बना दिया गया। फिर 1980 में उन्होंने न्यायपालिका से भी इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस की टिकट पर संसद में लौट आए।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती – जब 1982 में कांग्रेस को एक “अनुकूल” जज की आवश्यकता हुई, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बहारुल इस्लाम को फिर से बुलाकर सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया, जो संविधान और न्यायिक परंपराओं का घोर उल्लंघन था।

यह नियुक्ति क्यों गलत थी?

  • वह एक बार न्यायपालिका छोड़ चुके थे और राजनीति में लौट चुके थे।

  • दोबारा नियुक्ति के लिए किसी योग्यता या प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।

  • उस समय चल रहे बोफोर्स जैसे भ्रष्टाचार मामलों में सरकार को “सुरक्षित फैसला” चाहिए था।

“बहारुल इस्लाम की दोबारा नियुक्ति भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का सबसे शर्मनाक अध्याय है।” – Fali S. Nariman, Before Memory Fades


3. कांग्रेस और न्यायपालिका पर कब्ज़े की कोशिशें

कांग्रेस ने कई बार न्यायिक स्वतंत्रता को दबाने का प्रयास किया:

  • 1973: इंदिरा गांधी ने तीन वरिष्ठ जजों को बायपास कर A. N. Ray को मुख्य न्यायाधीश बनाया – केवल इसलिए क्योंकि उन्होंने केशवानंद भारती केस में सरकार विरोधी निर्णय नहीं दिया।

  • 1975-77 आपातकाल: जजों पर दबाव डालकर जनविरोधी निर्णय दिलवाए गए।

  • 1980s: बहारुल इस्लाम जैसे पूर्व सांसद को सुप्रीम कोर्ट भेजकर निष्पक्षता का उपहास उड़ाया गया।


4. कोलिजियम प्रणाली – एक पारदर्शिता रहित “नेपोटिज्म क्लब”

कोलिजियम प्रणाली को 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने “न्यायपालिका की स्वतंत्रता” के नाम पर अपनाया। परंतु यह प्रणाली धीरे-धीरे “बंद दरवाजों के पीछे परिवारवाद और भाई-भतीजावाद” का अड्डा बन गई है।

  • सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में कई ऐसे जज हैं जिनके पिता, चाचा, ससुर या भाई पहले जज या वरिष्ठ वकील रहे हैं।

  • जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा, जस्टिस यू.यू. ललित – सबका परिवार न्यायपालिका में रहा।

  • मेरिट की बजाय “जान-पहचान” से नियुक्तियाँ हो रही हैं, जिससे प्रथम पीढ़ी के वकीलों को कोई अवसर नहीं मिल पाता।

“कोलिजियम ने ट्रांसपेरेंसी नहीं लाई, बल्कि गुप्त सौदों को संस्थागत रूप दे दिया है।” — Justice Ruma Pal


निष्कर्ष: न्यायपालिका की सफाई आवश्यक है

जब न्यायपालिका में अयोग्य और पक्षपाती लोगों की नियुक्तियाँ होती हैं, तो पूरा संविधान खतरे में पड़ता है। जस्टिस वांचू और बहारुल इस्लाम जैसे मामलों ने यह साबित कर दिया है कि कांग्रेस पार्टी ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए देश की न्याय व्यवस्था तक को कठपुतली बना दिया।

आज जरूरत है:

  • कोलिजियम सिस्टम की समीक्षा की जाए।

  • न्यायिक नियुक्तियों में लोकपाल या पारदर्शी चयन समिति की भागीदारी हो।

  • भाई-भतीजावाद पर अंकुश लगे, और योग्यता को प्राथमिकता मिले।


🔍 संदर्भ (References):

  1. Fali S. Nariman – Before Memory Fades

  2. Granville Austin – Working a Democratic Constitution

  3. Supreme Court Advocates-on-Record Association vs. Union of India (1993)

  4. News18, The Wire, Bar & Bench archives on Justice Baharul Islam and Justice Wanchoo

  5. Interviews and speeches by Justice Ruma Pal, Justice Jasti Chelameswa

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