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“स्तन कर” और टीपू सुल्तान: एक ऐतिहासिक फ़ैक्ट-चेक

Breast Tax

सोशल मीडिया पर आजकल एक कथा बहुत तेज़ी से फैल रही है। दावा किया जाता है कि दक्षिण भारत में एक समय दलित महिलाओं पर “स्तन कर” (Breast Tax) लगाया जाता था, जिसे महान टीपू सुल्तान ने अपने शासनकाल में समाप्त कर दिया। इस दावे को भावनात्मक कहानियों, कलाकृतियों और वीडियो के ज़रिए लोगों के मन में बैठाया जा रहा है। लेकिन क्या यह बात ऐतिहासिक रूप से सही है? आइए, इस पूरे विषय का गंभीरता से फेक्ट-चेक करते हैं और जानते हैं कि असली इतिहास क्या कहता है।

सोशल मीडिया में यह कहा जा रहा है कि त्रावणकोर राज्य (आज का केरल) में निचली जाति की महिलाओं को स्तन ढकने के लिए कर देना पड़ता था। इसे “मुळक्करम्” नाम दिया गया है और कहा गया कि जो महिलाएँ अपने स्तनों को ढकना चाहती थीं, उन्हें सरकार को कर देना पड़ता था। इसी क्रम में एक कहानी सामने आती है “नंगे‌ली” नामक महिला की, जिसने कर देने से इनकार कर अपने स्तन काटकर अधिकारियों को दे दिए, और उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि इस घटना के बाद कर हटा दिया गया।

कुछ पोस्ट यह भी दावा करती हैं कि जब टीपू सुल्तान ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की तो उसने तुरंत इस अन्यायपूर्ण कर को समाप्त कर दिया और निचली जातियों को सम्मान दिलाया। उसे एक न्यायप्रिय और प्रगतिशील शासक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

अब इस पूरे विमर्श को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो यह पूरा आख्यान मिथक बनकर सामने आता है। वास्तविक ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और समकालीन यात्रियों की रिपोर्टों में इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता।

मुळक्करम्” एक कर था, लेकिन यह वास्तव में एक सामान्य जाति-आधारित व्यक्तिगत कर (Poll Tax) था, जो निचली जातियों की महिलाओं पर लागू होता था। इसका स्तन ढकने से कोई संबंध नहीं था। इसी तरह पुरुषों पर “थलक्करम्” नामक कर होता था। उस समय के प्रशासनिक दस्तावेज़ों में कहीं भी यह नहीं लिखा गया कि यह कर स्तन ढकने के कारण लिया जा रहा था।

इतिहासकार मनु एस. पिल्लै और कई अन्य प्रामाणिक शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि “ब्रैस्ट टैक्स” का विचार आज की कल्पना है, उस समय की नहीं।

“नंगे‌ली” की कहानी लोककथा मात्र है। कोई ब्रिटिश या डच प्रशासकीय रिकॉर्ड, कोई यात्रा वृत्त या कोई शाही आदेश इस कहानी की पुष्टि नहीं करता।

अब बात करते हैं कि उस समय समाज में महिलाओं की वेशभूषा कैसी थी। दक्षिण भारत में—विशेषकर केरल और तमिलनाडु में—ब्राह्मण, क्षत्रिय और यहां तक कि शाही परिवार की महिलाएं भी ऊपरी वस्त्र नहीं पहनती थीं। यह कोई अपमान नहीं बल्कि संस्कृति का हिस्सा था।

ब्राह्मण महिलाएं जैसे नंगी अम्मा, कुंजिकुट्टी थम्पुरत्ती (Travancore की राजकुमारी), मन्यम्मा रानी, और अथोल राजवंश की महिलाएं—इन सभी के बारे में यात्रियों ने उल्लेख किया है कि वे सार्वजनिक रूप से अपने स्तनों को ढके बिना रहती थीं।

ब्रिटिश और डच यात्री जैसे कि Francis Buchanan, James Welsh, और Dutch admiral Van Rheede ने अपने यात्रा वृत्तों में साफ तौर पर लिखा है कि यहां की स्त्रियाँ चाहे किसी भी जाति की हों, अक्सर केवल कमर से नीचे वस्त्र पहनती थींFrancis Buchanan ने स्पष्ट रूप से लिखा कि “यहां की महिलाओं के लिए स्तन ढकना सामाजिक रूप से सामान्य नहीं है—यह न अश्लील माना जाता है और न ही अनुचित।”

यह उल्लेखनीय है कि 19वीं शताब्दी में जब ईसाई मिशनरियों और औपनिवेशिक नैतिकता का प्रभाव बढ़ा, तब समाज में बदलाव आने लगे और स्त्रियाँ ऊपरी वस्त्र पहनने लगीं। इसके लिए चन्नार समुदाय की महिलाओं ने “चन्नार विद्रोह” किया था, जिससे बाद में उन्हें यह अधिकार मिला।

अब बात करते हैं टीपू सुल्तान की। जिसे आज “स्तन कर हटाने वाला नायक” कहा जा रहा है, उसके शासनकाल में कर्नाटक, मलाबार और कोडागु में हिन्दू जनता विशेषकर निचली जातियों पर भयंकर अत्याचार हुए।

टीपू सुल्तान ने कोडावा विद्रोह को दबाने के लिए 60,000 से अधिक हिन्दू पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को बंदी बना लिया। उन्हें जबरन इस्लाम में दीक्षित किया गयाहजारों हिन्दू महिलाओं को सेरिंगापट्टन की जेलों में डाल दिया गया, जहाँ उन्हें यौन शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। यह बात ना केवल ब्रिटिश अधिकारियों की रिपोर्ट में दर्ज है, बल्कि टीपू के खुद के पत्रों में भी मिलती है जहाँ उसने गर्व से लिखा है कि उसने “काफिरों को मिटाकर इस्लाम की सेवा की।”

नायर समुदाय की महिलाओं को भी अपमानजनक तरीके से बंदी बनाया गया, और जबरन इस्लामी रिवाजों में ढाला गया। इस्लामी “जिहाद” के नाम पर पूरे दक्षिण भारत में हिन्दू संस्कृति को तोड़ने की कोशिश की गई। मंदिर तोड़े गए, मूर्तियाँ तोड़ी गईं, और हजारों हिन्दुओं को बलपूर्वक इस्लाम में धर्मांतरित किया गया।

दलित वर्ग भी इस उत्पीड़न से अछूता नहीं रहा। वे भी जबरन मुसलमान बनाए गए, या फिर बंदीगृहों में यौन शोषण व उत्पीड़न का शिकार हुए।

तो अब सोचने की बात यह है—क्या वास्तव में टीपू सुल्तान ने दलित महिलाओं को न्याय दिलाया? या यह एक नया बनाया गया भ्रम है?

निष्कर्ष:
“स्तन कर” की कहानी, नंगे‌ली की आत्मबलिदान की गाथा और टीपू सुल्तान को दलितों का रक्षक बताने की बात—all are constructed myths हैं जिनका ऐतिहासिक आधार बेहद कमजोर है। दूसरी ओर, हमारे पास ऐसे दस्तावेज़ और विदेशी यात्रियों के साक्ष्य हैं जो स्पष्ट करते हैं कि न तो “स्तन कर” वैसा था जैसा बताया जा रहा है, न ही टीपू सुल्तान कोई न्यायप्रिय शासक था।

“बल्कि वह एक क्रूर, साम्प्रदायिक और कट्टर शासक था जिसने न केवल हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों को नष्ट किया बल्कि हजारों हिन्दू महिलाओं का शोषण भी किया।”

इतिहास को समझना हमारी ज़िम्मेदारी है—but based on verified facts—not on fabricated emotions.

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