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कैसे एक सरकारी नीति ने यूपी-बिहार को पीछे धकेला और मुंबई में उन्हें ‘बाहरी’ बना दिया

नई दिल्ली। भारत की आज़ादी के बाद विकास के सपने को साकार करने के लिए कई नीतियाँ बनाई गईं। लेकिन कुछ फैसले ऐसे भी थे, जिन्होंने देश के भीतर ही असमानता की दीवार खड़ी कर दी। उन्हीं में से एक थी फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी (Freight Equalisation Policy), जिसे 1952 में लागू किया गया था।

यह नीति देखने में तो देश को एकजुट रखने वाली लगती थी, लेकिन इसके असर ने उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को आर्थिक तौर पर पिछड़ने पर मजबूर कर दिया।

क्या थी फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी ?

इस नीति के तहत भारत सरकार ने यह तय किया कि खनिज और औद्योगिक कच्चे माल जैसे कोयला और इस्पात की ढुलाई का खर्च पूरे देश में एक समान होगा। यानी मुंबई में बैठी फैक्ट्री को भी कोयला उतनी ही कीमत पर मिलेगा जितना कि रांची के पास मौजूद किसी उद्योग को।

इसका सीधा लाभ महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे उन राज्यों को मिला जो पहले से ही प्रशासनिक और औद्योगिक रूप से मज़बूत थे।

विकास की दौड़ में क्यों पिछड़ गए पूर्वी राज्य ?

भौगोलिक लाभ छिन गयाः जिन राज्यों में खनिज मौजूद थे, वहां उद्योग लगाने की आर्थिक वजह ही खत्म हो गई। कंपनियों ने उन राज्यों में फैक्ट्री लगाना पसंद किया जहां बाज़ार और बंदरगाह पहले से मौजूद थे।

रोज़गार की कमी और पलायनः जब स्थानीय स्तर पर नौकरियाँ नहीं बनीं, तो लोगों को मजबूरन महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा। पंजाब के खेतों से लेकर मुंबई के टैक्सी स्टैंड तक, “बिहारी” मज़दूरों की मेहनत हर जगह दिखने लगी।

अपमान का सामनाः दुर्भाग्य से, इन्हीं लोगों को महानगरों में “बाहरी” कहकर निशाना बनाया गया। कभी राजनीतिक वजहों से, तो कभी भाषाई और सांस्कृतिक भेदभाव के कारण।

जब इतिहास का अन्याय वर्तमान को शर्मिंदा करता है

आज भी हम देख रहे हैं कि कैसे बिहार, यूपी या झारखंड से आए श्रमिकों को महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे राज्यों में हिंसा, तिरस्कार और अपमान का सामना करना पड़ता है। लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि आखिर क्यों ये लोग अपने गांव-घर छोड़कर इतनी दूर आते हैं?

यह एक सामाजिक नहीं, बल्कि नीति-निर्माण की विफलता है।

क्या हो सकता है समाधान ?

• औद्योगिक संतुलन की ज़रूरत हैः सरकार को चाहिए कि पूर्वी भारत में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और अधोसंरचना मुहैया कराए।

• इतिहास से सबक लिया जाएः यह स्वीकार करना ज़रूरी है कि कुछ नीतियों ने कुछ राज्यों को नुकसान पहुँचाया है। इससे आगे की योजना न्यायपूर्ण बन सकती है।

• माइग्रेंट वर्कर्स को सम्मान मिले: जो मजदूर देश का इंजन चलाते हैं, उन्हें सिर्फ ‘मज़दूर’ नहीं, ‘निर्माता’ की तरह देखा जाना चाहिए।

निष्कर्ष: जब तक भारत अपने सभी राज्यों को बराबरी का मौका नहीं देगा, तब तक “विकास” सिर्फ एक वर्ग तक सीमित रहेगा। फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी अब भले ही इतिहास हो, लेकिन उसके ज़ख्म आज भी जिन्दा हैं – खासकर उन लोगों के दिलों में, जिन्हें अपने ही देश में पराया बना दिया गया।

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